Monday 24 October 2011

(A1/5) राम का स्वागत करो -अब आ गयी देखो दिवाली

राम का स्वागत करो
अब आ गयी देखो दिवाली
अब सजा लो थाल पूजा के
अब सजा लो द्वार बन्दनवार से
अब जलाओ दीप कर दो रौशनी चारों तरफ
हो तिमिर का नाम न निशान भी
ज्ञान के दीपक जलाओ
प्रेम हृदयों में जगाओ
टूटते मन  दूर नित हो हो रहे हैं
प्रेम का मरहम लगाकर जोड़ दो
राम का ......................
गीत बदलो -राग बदलो
वो पुराने ताल बदलो
रूढ़ियाँ जो दस रही हैं
आज काले नाग सी
बिच्क्षुओं   के डंक  वाले;
रीत और रिवाज बदलो
एक मालिक है सभी का
राम -अल्लाह एक हैं
मत लड़ो ले नाम इनका
खोखली बुनियाद वाले
अपने हर अंदाज बदलो
राम का ..............
झोपड़ों में जी रहा है जो
अश्क अपने पी   रहा है जो
बेदना  से त्रस्त  है
अपनों के भय से ग्रस्त है
चीथड़ों में ढंके उस इंसान की
 जिंदगी को एक नया  आयाम दे दो
लाश जिन्दा हैं-हुआ शोषण तुम्हारे हाथ जिनका
मांस के उन लोथड़ों को  
आज थोड़ी जान दे दो
आग में जलते रहे अपमान की
पैर की जूती ही बनकर रह गए हैं
उन सिसकते बचपनो को   
माँ का आँचल मिल सके
वरदान  दे दो























डॉ आशुतोष  मिश्र
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़  फार्मेसी
बभनान,गोंडा, उत्तरप्रदेश
मोबाइल न० 9839167801


Tuesday 18 October 2011

(A1/44) क्या करूँ मैं ?

क्या करूँ मैं ?

जिंदगी में
सीधे सच्चे पथों पे
चलते चलते
जब मिल जाता है
कभी-कभी कोई ऐसा
जो , जमा देता है ,
दो भरपूर तमाचे
दोनों गालों  पे
या
कर जाता है बरसात
गलियों की,
चलते -फिरते , रुकते बैठते
और कभी कभी
जब पार हो जाती हैं
ईशा, गाँधी और कृष्ण की सीमाएं
तब हमेशा ही,
सामने  आ जाता है
समतल और उबड़- खाबड़
दो पथों में बंटता,
दोराहा.....
और , सोचने लगता है
बरबस ही मन
क्या करूँ.?
क्या करूँ मैं?
सहसा तभी
मिल जाता है उत्तर..
की छोड़ा जा सकता है उसे..
व्यक्तिगत सीमाओं के अतिक्रमण तक
किन्तु जब ,
अतिक्रमित होने लगे
मातृभूमि की सीमा
उजड़ने लगे वन
नष्ट होने लगें
जीवा-जाती -प्रजाति
सजल हो जाएँ
माँ के नयन
तब श्रेयस्कर है
मिटा देना उसे
देश द्रोही को छोड़ देना
पाप है, महापाप है






school लाइफ poem  










.


डॉ आशुतोष मिश्र
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान, गोंडा, उत्तरप्रदेश
मोबाइल न०.9839167801



Sunday 9 October 2011

(A1/33) पापी को बरगद सा बढ़ाना होता है

चीरकर रहजनो के पाँव
मुस्कुराती थी;
बरगद  की  एक  सूखी ठूंठ
हमेशा ही...
एक  दिन  ऐसे  ही चीरकर भोले शंकर   के पाँव
जब कुटिल मुस्कान  से  मुस्कुराई
तो भोले की अर्धांगिनी पार्वती तिलमिलाईं
जब तक दिल की पीड़ा श्राप बन पाती
भोले बाबा  ने ठूंठ  को महिमामंडित कर डाला
खूब फूलो फलो;
हजारों पक्षियों का बसेरा हो तुम पर
बरदान दे डाला....
पार्वती के होंठों पर खिसियाहट आयी
दुष्ट को वरदान ; बात समझ नहीं आयी
भोले बाबा  ने हंस कर बात घुमाई
तो देवी ने भी हर बात भुलाई
बाबा  का आशीष पाकर
ठूंठ  इतराया
बनकर विशाल बट बृक्ष
झूम झूमकर लहराया
बर्षों  बाद  जब लौटी  पार्वती भोले संग   
तो फिर  चिढ  गयी;
देख  बौराए  बट के मदमाती  उमंग
भोले के तन  से  बहता  लहू  फिर  याद  आया
चेहरा   फिर  तिलमिलाया
लेकिन  जब तक दिल की पीड़ा ने होंठों को हिलाया
एक  जबरदस्त  तूफ़ान  आया
बट ने ठहाका   लगाया
पर दूजे  पल ही
जड़ से  उखड़कर  जमीन  पर आया
बट के इस  हश्र   पर पार्वती ने फिर  सवाल  उठाया  
तो भोले ने प्यार से  समझाया
ठूंठ  सबको   रोज  लहूलुहान  बनाता  
आँधियों  तूफान  को हंसकर   सह  जाता
उसका  अत्याचार   बढ़ता   जाता
पर उसका  बाल  भी बांका  न  हो पाता   
इसलिए   जब भी पापी  को जड़ से  मिटाना  होता है
उसे   बरगद  जैसे  ही बढ़ाना होता है



मेरे  श्रध्येय  गुरु  प्रोफेसर  जे जी अस्थाना  द्वारा    मुझे   सुनाई    गयी  नीति  की  कहानी  का काव्य  रूपांतरण


रचनाकार  
डॉ  आशुतोष  मिश्र   
आचार्य  नरेन्द्र  देव  कॉलेज  ऑफ़  फार्मसी
बभनान , गोंडा , उत्तरप्रदेश
मोबाइल  न०  9839167801

Wednesday 5 October 2011

(A2/36) मौन हैं : लता. सचिन और अमिताभ

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ईश्वर जब भी  चाहता है कुछ अनोखा करना
भेजना चाहता है कोई अद्भुत सन्देश
छेड़ना चाहता है सुर लहरी
खेलना  चाहता है बच्चों जैसे खेल
संबारना चाहता है धरती का आँचल
दमन करना चाहता है अनीति का
मिटाना चाहता है पापियों  को समूल
तब-तब
चुनता है किसी को
बनाता है अपना  निमित्त
और इस सत्य को जानकार ही
सुर लहरियों से जग को बहलाकर
रनों के अम्बार लगाकर
अभिनय का झंडा फहराकर
मौन हैं लता. सचिन और अमिताभ
और
खुद को भूखा प्यासा रख;
मुस्कुराते हैं अन्ना गाँधी की  तरह
न जाने कितने खुदा के बन्दे
बिना इठलाये ,बिना इतराए
कर रहे हैं पूर्ण; ईश्वर के ख्वाब , निमित्त बनकर
धरती को संवारने का संकल्प दिल में लिए .....
सम्भब्तः  इसीलिए
ईश्वर ने तुम्हे चुना था
शायद तुम पूरे  कर सको उसके स्वप्न
और शायद  इसलिए मैंने भी
चुना है ईश्वर को
मुझे भी ख्वाइश है उसकी कृपा की...
मैं  साक्षी हूँ तुम्हारी प्रतिभा के पल्लवन का
पर शायद तुम्हे अब याद नहीं है यह
जमीन पर रहते हुए  ही तुम्हे लगता  है
न जाने कितनी  सीढियां चढ़ गए हो तुम
कल्पना करते हो की   उठा के हाँथ
बांध लोगे आकाश को अपनी मुट्ठी में.....
शायद तुम्हे भ्रमित करते हैं
कागज के वो चंद  टुकड़े
जो तब्दील कर  देते हैं रोज
तुम्हारे खातों के अंकों को
बड़े अंकों में..........
अब तुम्हे गुरेज है खेलने में
गुल्ली डंडा और आँख  मिचोली मेरे साथ
अब गंवारा नहीं है  तुम्हे
एक  नजर  भर  कर  देखना भी  मुझे
अब मेरी आँखें  सिर्फ बहती हैं
अब नहीं होता है
सांत्वना  का कोई हाथ मेरे सर पर....
पर मैं जानता हूँ  
तुम  मुझसे मिलोगे
जब बहोगे नदियों में
उदोगे  हवाओं   में
राख बनकर मेरे साथ
और जब-
मिला  देंगी सागर की लहरें
तुम्हे और मुझे;
तुम्हारे न   चाहते हुए  भी...
तब सिर्फ मैं सुन  सकूँगा
तुम्हारे रुदन  की आवाज
लेकिन ....
लेकिन  तब नहीं होंगी;
 मेरी आँखें रोने को
तब नहीं होंगे मेरे हाथ
तुम्हे सांत्वना देने के लिए
शायद!
शायद  तब तक  देर हो चुकी होगी
बहुत देर  ................





डॉ आशुतोष मिश्र
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान, गोंडा, उत्तरप्रदेश
मोबाइल न० 9839167801




















Monday 3 October 2011

(A1/46) आजा आके गले लगा जा

जख्म  सैंकड़ों  सीने  में  ले
गली-गली  में घूम रहा  हूँ 
दर-दर  पे  देता   हू  दस्तक 
सजल  नयन  है   
रूँधा  कंठ  है 
पथिक  थक  गया ,
पथ  अनंत   है
कदम-कदम  पे  चौराहे  हैं  
चक्कर  खाती  ये  राहें  हैं  
बियावान  से  कितने  जंगल  
पथ  गहरी सरिताओं वाले 
पर्वत की ऊँची छोटी है
गहरी खाई, गहरे नाले
ढूंढेंगे हम तुझे जहाँ पे  
ऐसा न कोई दिगंत है
पथिक थक गया पथ अनंत है
खुशियाँ कोसों दूर खड़ी हैं
रुग्ण हताश यहाँ जन-जन है
आँख मिचौनी बहुत हो चुकी
आजा आके गले लगा जा
जर्जर तन है
 टूटा मन है
तू न लौटी तो, निश्चित ही
मानव का आ गया अंत है
आजा, ढूंढ़ नहीं पाऊंगा
बांध सब्र का टूट रहा है
सांसों की गति मंद-मंद है
पथिक थक गया
पथ अनंत है


डॉ आशुतोष मिश्र
निदेशक
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान, गोंडा, उत्तरप्रदेश
मोबाइल न० 9839167801


कॉलेज लाइफ पोएम (1989 -1995)

         
                                   





Saturday 1 October 2011

(A2/37) दो बहनें- धर्मनीति और राजनीति

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दो बहनें:- धर्मनीति और राजनीति




नीति कब जन्मी,

यह अज्ञात है  

अंडे से मुर्गी और मुर्गी से अंडे की ;

उत्पत्ति की तरह ही

समय के साथ नीति की ;

तमाम बेटियों में से एक  

राजाओं के दिल में उतर गयी

उम्र से पहले ख्यातिलब्ध हो

नृपों के गले का हार बनकर  

आसमान पर चढ़ गयी

कभी उसकी  अपनी  बहन

धर्म-नीति से बनी, कभी ठनी

राजा बदलते रहे

धर्मनीति, राजनीती;

गले मिलते रहे बिखरते रहे 

भूत के दृश्य भविष्य में निशानी हो गए

राजा और रानी कहानी हो गए

रोती रही राजनीती
राजा-रानियों के शवों से लिपटी...

व्यभिचार अत्याचार अनीति  की

राक्षसी सो गयी

फिर अंधेरों में खो गयी

राजाओं के मिटते ही  

आम जन ने

अपनी हुकूमत बनाई  

संत हृदयों ने की अगुवाई

जन जन की  रहनुमाई  

धर्म-नीति उभर आयी

सबके दिलों पर छाई

अपनी बहिन का  उत्कर्ष

बहिन नहीं पचा पाई

राजनीत को बिलकुल नहीं भाई  

फिर राजनीती ने दी 
अपने बैभव के दिनों की दुहाई

लायकों और मह्त्वाकान्च्छियों के;

दर की कुण्डी खटखटाई

जब हर जगह ठोकर खाई

तो गुस्से में आयी

अपना कहर बरपाया     

कोने-कोने में संक्रमण फैलाया

नालायक महत्वाकान्च्छियों को  

अपने चुंगल में फसाया

अपने बैभव का पुराना जलवा दिखाया

धीरे-धीरे अपना जहर फैलाया

अपने साम-दाम दंड- भेद का  कुचक्र चलाया  

अधर्मियों को रहनुमा बनाया 

धर्मनीति अपनी  राह पर चलती रही

राजनीती बढती रही ,  

महामारी की तरह  

मंत्री, संत्री,अफसर सबको गुलाम बनाया

अब अपनी बहन को भूले से भी;

गले नहीं लगाती है

आलीशान बंगलों, क्लबों, होटलों में बैठ

देश का भविष्य बनाती है

अपनी बहन को अंगूठा दिखाती है

लायक महत्वाकांक्षी सर  मुंडाए  खड़े  हैं

नालायक अधर्मी ;

नेता और अफसर के रूप में

कुर्सियों पर चढ़े हैं 



डॉ आशुतोष मिश्र
आचार्य  नरेन्द्र दो कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान, गोंडा उत्तरप्रदेश
मोबाइल  न०  9839167801



    






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