Wednesday 31 August 2011

(BP 62) चोट दिल पे थी तो कलम मचल गयी

                              देश की जानी मानी पुलिस आफिसर
                       अन्ना के रंग ढंग  में ढल गयी
                       देशभक्ति के उन्माद में डूबी थी
                       भड़ास अभिनय बनकर निकल गयी
                       एक अभिनेता था   कब से व्यथित
                       ख़ामोशी की बर्फ जाने कब पिघल गयी  
                       देश भक्ति के उन्माद में तमाम बातें
                       फटे दिल से लावा  बन निकल गयीं
                      बात खादी ओढ़ने  वालों को खल गयी
                      खली क्या खादी सुलग  गयी जल गयी
                      संसद  में जबरदस्त बहस  चल  गयी
                     लेकिन ........................ 
                     जब सोते  बच्चे  को कार  कुचल गयी
                     जब नकली दवा नौनिहालों को निगल गयी
                    जब दरिंदगी अबला की जिन्दगी  बदल गयी
                     जब गुमशुदा के लिए माँ की उम्र ढल गयी
                     जब  घोटालों की नाली नदी में बदल गयी
                   जब मासूम कली बिना खिले  ही फल गयी 
                   जब हिमालय की बर्फ धीरे धीरे गल गयी
                     जब पतित पावनी गंगा मैया उथल गयी
                     तब भी क्या खादी वालों को खल गयी?
                     तब भी क्या खादी सुलगी, क्या जल गयी
                     तब तो हर समस्या स्वतः सुलझ गयी
                     शोषिता की तस्वीर कैमरे से निकल गयी
                     खबर हेड लाइन और लाइन में बदल गयी
                    हर चैनल पर कई-कई बार चल  गयी
                    ना जाने कितनी बार  रूह झुलसी है
                   ना जाने कितनी बार बात  खल गयी
                   जुवान को मैंने फिसलने से रोक रखा है
                          पर चोट दिल पे थी तो कलम मचल गयी






डॉ आशुतोष मिश्र
निदेशक
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान,गोंडा,उत्तरप्रदेश
मोबाइल न० 9839167801

Tuesday 30 August 2011

(BP 63) नवयुग का निर्माण करें हम

                 जीवन के पथ पर चलना है
                 अंगारों को गले लगाकर
                 ख्वाबों की तासीर बदल दो
                 अंतर को अपने दहकाकर
                 स्वप्न समर्पित कर देने हैं
                 सारी दुनिया को महकाकर
                 करो संधान कोई आशा सर
                 छोड़ो प्रत्यंचा आज चढ़ाकर
                 नवयुग का निर्माण करें हम
                 दिल से दिल को आज मिलाकर



डॉ आशुतोष मिश्र
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान,गोंडा, उत्तरप्रदेश
मोबाइल न० 9839167801




Monday 29 August 2011

(A2/32) जल गयी हैं जो मशालें वो ना बुझने देना

       
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जल गयी हैं जो मशालें वो ना बुझने देना
          जिस तिरंगे  को उठाया है,    झुकने देना
          भारती की ही दुआओं का  असर है आज ये 
          लाये जो  तूफ़ान मिलकर वो रुकने देना
          हैं सड़क पर और संसद में भी माँ के लाडले
          दिल से दिल की दूरियां अब ना बढ़ने देना
          एक अन्ना सा मिला सच्चा पुजारी सच का
          इस हकीकत पे कोई  कालिख   चढ़ने देना
          भेष में आज पुजारी के  डाकू चोर ज्यादा हैं
          गेंहू  के साथ मगर  घुन को ना  पिसने देना
          मुद्दतों बाद सही, आया  समझ माँ  क्या  है
          बास्ते माँ  के  गर  अब सर कटे कटने देना
           माँ का  आँचल है तार तार अपने बेटों से

          सिल ना पाओ तो इसे और ना  फटने  देना
   जल गयी हैं जो मशालें वो ना बुझने देना
          जिस तिरंगे  को उठाया है, न   झुकने देना
          भारती की ही दुआओं का  असर है आज ये 
          लाये जो  तूफ़ान मिलकर वो न रुकने देना
          हैं सड़क पर और संसद में भी माँ के लाडले
          दिल से दिल की दूरियां अब ना बढ़ने देना
          एक अन्ना सा मिला सच्चा पुजारी सच का
          इस हकीकत पे कोई  कालिख न  चढ़ने देना
          भेष में आज पुजारी के  डाकू चोर ज्यादा हैं
          गेंहू  के साथ मगर  घुन को ना  पिसने देना
          मुद्दतों बाद सही, आया  समझ माँ  क्या  है
          बास्ते माँ  के  गर  अब सर कटे कटने देना
           माँ का  आँचल है तार तार अपने बेटों से
          सिल ना पाओ तो इसे और ना  फटने  देना

डॉ आशुतोष मिश्र
आचार्य नरेन्द्र दो कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान, गोंडा, उत्तरप्रदेश
मोबाइल न० 9839167801

Sunday 21 August 2011

(BP 65) क्या हम भ्रस्टाचारी हैं जो जन-लोकपाल से डरें?


आज  जन्मास्टमी के पर्ब  पर
पंडित जी कथा सुना रहे थे
आतातायी कंस की गाथा बता रहे थे
कंस की निरंकुशता के किस्से सुनाते हुए
अत्याचारी का घिनोना  जीवन बृत्त दोहरा रहे थे
कैसे नारद के मुख से कृष्ण का उल्लेख आया
कैसे इस सत्य ने कंस की नींद को उड़ाया
बहिन के आठवें बच्चे से भयभीत कंस
महाभिमानी दर्प में चूर कंस 
 कैसे अनीति की हद पार कर गया
अपनी बहिन-बहनोई को कारावास में कैद कर गया
कैसे एक कान्हा के लिए
हिला  दिया जमी का कोना- कोना
षड़यंत्र पर षड़यंत्र कर डाले
प्रयोग कर डाला;
भयानक राक्षस राक्षसनियों का खौफनाक  तंत्र   
सारा जोर लगाया
पर कान्हा को नहीं मिटा पाया
फिर समय के साथ कान्हा ने कंस को खाक में मिलाया  
ये कथा सुनकर मैं सोच में पड़ गया
मेरे दिमाग में ये सवाल बार बार आ रहा है
क्या इतिहास खुद को दुहरा रहा है ?
क्या रामलीला   मैदान मथुरा  बन जायेगा ?
क्या फिर कोई चमत्कार हो जायेगा ?
कंस  के रूप में खड़ी सरकार है 
कान्हा के  रूप में जन- पारावार है
कंस की तरह सरकार ने हर हथकंडा अपनाया
अपना खुफिया तंत्र चप्पे चप्पे में बिछाया
हथकड़ी सांकल का भय दिखाया
कारावास का रास्ता भी अपनाया
हो सकता है पूत्नाएं भी भेजी हों
हो सकता है षड़यंत्र का कोई जाल बिछाया हो
रामलीला मैदान  रावन से और
कृष्ण जन्मास्टमी कंस से मुक्ति की याद दिला रहे हैं
भ्रस्ताचार उन्मूलन महायज्ञ में हमारी आस्था बढ़ा रहे हैं  
पर सरकार भी हमारी है
अन्ना भी हमारे हैं
मंत्री संत्री सब हमें प्यारे हैं
सभी भारत माता के दुलारे हैं
सैनिक के भेष में भारती का कोई बेटा
खाकी बर्दी में खड़ा माँ का कोई लाडला
क्या अपने निहत्थे भाईओं पे गोली चलाएगा ?
गर एक बेटा दूसरे की खिलाफत में हो जाएगा
दुनिया को हँसने का मौका मिल जायेगा
आपस में  मिल जायें
एक दूजे को गले लगायें
भ्रस्टाचार को जड़ से मिटाना है
लेकिन भाई भाई को नहीं टकराना है
अपने दिलों से कंस और रावण को मिटा दें
उनके पुतलों को मिलकर जला लें
कृष्ण जनम पर कसम खाएं
जन लोकपाल क्या ऐसा वो हर कानून  बनाएं
जिससे आदमी-आदमी की खाई पट जाये
आदमी-आदमी से मिल जाए
हमारे दिल में चोर नहीं है
; तो हम क्यों घबराएं
जन लोकपाल बनता है तो बन जाए
जनता आज ही  सड़कों पे नहीं आयी है
पैसठ  बर्षों में हमने जो गुल खिलाये हैं
वो धीरे धीरे पूरी जनता को सड़कों पे ले आये हैं
आओ मिलकर कानून के नए दीप जलाएं
जनता का खोया बिश्वास लौटाएं
पैसठ बर्षों का वनवाश भोग रहे लोग
और जो कुर्सी पे बैठे, रहे हैं सत्ता- सुख भोग
दिलों में बैठे कंस-रावन बध करके सड़कों से घर जाए   
ख़ुशी से दीवाली और कृष्ण जन्मास्टमी मनाएं



डॉ  आशुतोष मिश्र
निदेशक
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान, गोंडा, उत्तरप्रदेश
मोबाइल न० 9839167801


Saturday 20 August 2011

(BP 66) तोहमत भी लगाते हो तो अन्ना पर लगाते हो

एक  ज़माने बाद एक  बुजुर्ग ने मशाल उठाई है 
देश  की  तरुनाई  को  रौशनी  की किरण  दिखाई  है  
डूबा  है भ्रस्टाचार  में  सरापा  कहते  हुए  
एक  भ्रस्ताचारी  की नही  जवान  लड़खड़ाई  है 
एक बुजुर्ग गांधीवादी  को यूं  भेजकर  जेल  में तुमने     
खुद  को क्या  मर्द  साबित किया है, मर्दानगी दिखाई है
प्यार  के  बोल  कहाँ  समझती  हैं  गोरी-काली  सरकारें  
इसलिए  इस  देश  में आंधी  नहीं  सुनामी  आयी  है 
तुम  लोकपाल  कहते हो  हम  जन  लोकपाल कहते हैं   
जननायक  हो जन से  चिढ़ते  हो भई ये  तो ढिठाई  है    
तोहमत  भी  लगाते  हो तो  उस  अन्ना पर लगाते हो    
जिसने  एक जून  रोटी  खा  हर  शाम  मंदिर  में  बिताई  है  
जनता  के रखवालो  ने पेश की है एक अनूठी  बानगी    
सोते  हुए बच्चों ,  संतों और  औरतों  पे  लाठी   चलाई  है  
कभी  ये नहीं कभी वो  नहीं हर  बात  की मनाही  है      
कभी ये भी सही वो भी सही हर बात  समझ  आयी है        
पाँव  के देखकर  फफोले  अब  वो कुछ यूं बयां  करते  हैं  
राख  में थे  दबे   शोले  चिंगारी  दी   नहीं दिखाई है   
गांधीवादियों  की भीड़  न झुका  पायेगी  तानाशाही  
अगर हकीकत  में गांधीवाद  है,  गाँधी  सी  सच्चाई हैं 

डॉ आशुतोष मिश्र
निदेशक
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान, गोंडा, उत्तरप्रदेश
mobile  न० 98391678

Wednesday 10 August 2011

(A1/7) बहुत पागल हूँ मैं

     कभी कभी लगता है
    बहुत पागल हो गया हूँ मैं                      
     जो बदलना चाहता हूँ
  जंग लगी व्यबस्थाओं  को
 उन लोगों के सहारे
जो रच  बस गए हैं इसमें
 बन  गए हैं अभिन्न  अंग इनके
                     कभी कभी लगता है         
                   बहुत पागल हूँ मैं
                     जब टकराने लगता हूँ
                     बदलाव  की कोई उम्मीद;
                      अपने जेहन में संजोये
                       भली -भांति जानते हुए भी कि
                        सदियों दर सदियों
                         रूढ़ी पोषित
                        हिमालय से ऊंची
                    और समुद्र की गहरे से गहरी जड़ों वाली
                             परम्पराओं को हटाना तो दूर
                            संभव नहीं
                           हिला पाना भी।
   कभी कभी लगता है
 बहुत पागल हो गया हूँ मैं
 जब चीरने लगता हूँ
 बंजर  जमीन  का सीना 
  बोने लगता हूँ
 बीज आम, अमरुद के
 यही सोचकर शायद धरती मुस्कुराये
  फूलों को हँसता देखकर
  और शायद इसलिए भी
   की बढ़ जाये आक्सीजन आणुओं की संख्या
    इस जहरीले बायुमंडल  में
    दौड़ सके आक्सिहीमोग्लोबिन   धमनियों में
    चूम सकें माएं संततियों के गुलाबी गाल
     कर सके अहशास,
   अपने पूर्णत्व का जिंदगी भर
                    किन्तु कभी कभी लगता है
                    बहुत पागल हूँ मैं
                    जब जलाने   लगता हूँ दिए
                   अमाबस की रातों में
                   गहन तम से लड़ने के लिए बहां
                    जहाँ चमगादरी  संस्कृति में
                   पले बढे चूहे
                   पी जाते हैं दीयों का तेल
                   और इंसानों के शरीफ बच्चे
                   खेलते हैं दीयों से खेल
    कभी कभी लगता है
 बहुत पागल हूँ म
जब करने लगता हूँ संगठित
    लोगों को
     बस्ती में घुमते सूअरों;
      यत्र  तत्र बिखरी गंदगी;
       कीचड  में नहाई  सडकें;
       मच्छर  प्रजनन केंद्र बने पानी के पोखरों
         और
        हवा में तैरते धूल कणों के बिरोध में
                पर कभी कभी जब लगता है
                 बहुत पागल हो गया हूँ मैं
                  तभी- तभी लगता है
                   पागल ही सही
                    मैं लड़ता रहूँगा जंग लगी व्यबस्थाओं से
                   टकराता रहूँगा रुढ़िवादी परम्पराओं से
                    चीरता रहूँगा धरती का सीना   
                     बोता रहूँगा आम और अमरुद के बीज
                   जलाता रहूँगा  दिए अमावास की रातों में
                    और संगठित भी करता रहूँगा लोगों को
                     और शायद इसके लिए
                    पागलपन के एहसास की नहीं
                   बल्कि जरुरत है पागल होने की
                     क्योंकि युद्ध के मैदान में
                    आत्म  समर्पण से
                       कई गुना श्रेयस्कर है
                     संघर्ष करते हुए गले लगा लेना
                     मौत को

डॉ आशुतोष मिश्र
निदेशक
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान,गोंडा,उत्तरप्रदेश
मोबाइल न०-9839167801


















Monday 1 August 2011

(A2/1) ये तुम्हारी पलकें हैं या हैं पिटारी जादू की



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ये तुम्हारी पलकें हैं
या हैं पिटारी जादू की
ये उठें  तो जाने कितने झुक गए
ये झुकें तो जाने कितने लुट गए
ये झुकी हैं या उठी हैं खैर है
जब उठीं हैं झुक के कितने उठ गये


ये तुम्हारी पलकें हैं
या हैं पिटारी जादू की
ये उठें  तो जाने कितने झुक गए
ये झुकें तो जाने कितने लुट गए
ये झुकी हैं या उठी हैं खैर है
जब उठीं हैं झुक के कितने उठ गये

डॉ आशुतोष मिश्र
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान,गोंडा, उत्तरप्रदेश
मोबाइल न० 9839167801 

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