Saturday 26 March 2011

एक ही मकसद टोपी-टोपी

एक ही मकसद:- टोपी-टोपी हाँ तो मैं यह कह रहा था, आज कल बहुत से कलमकार ऐसे हैं जिनका मकसद एक ही है। तो प्रष्न यह उठता है कि मकसद है क्या?  अरे होगा क्या?  सिवाय इसके कि जिसके भी सर पे टोपी दिखे उछाल दो।  अब देखो न राम प्यारे जी किस्मत से गरीब हैं।  किस्मत इसलिए क्योंकि उनका मानना है कि अमीर को ज्यादा खाने-पीने को है तो उसे डायविटीज है, गाड़ियों में घूमता है तो जोड़ों में दर्द है, शरीर इतना स्थूल कि शरीर को हिलाना पड़ता है, पर निगोड़ा हिलता ही नहीं आसानी से और दूसरी तरफ राम प्यारे जी की कुर्सी देखिये हालांकि शरीर हड्डियों का ढाँचा ही है पर हड्डियों में बहुत जान है, खाने को दो रोटी मिलती है वो भी मुष्किल से तो डायविटीज की हिम्मत कहाँ जो उनके शरीर रूपी पिंजरे में घुस सके और तो और उनके दस-बारह बच्चे हैं, कइयों को साइकिल में लादकर स्कूल ले जाने से लेकर, दोपहर का खाना पहुंँचाने से भी पैरों की, कसम से वो कसरत होती है कि अच्छा खासा पहलवान उन्हें गुरू मान बैठे।  हालांकि साइकिल बेंचकर, किसी से कुछ उधारी लेकर, वो लूना खरीद लाये हैं, अब क्या करते । बीबी को बड़ी इच्छा थी तो ले ली......पर कार का तो नाम भी मत लेना।  जानते हो कार कितना पेट्रोल डकारती है। कार का जिकर उनके भूलकर भी मत करना वरना शामत आ जायेगी, जिकर करने वाले की आखिर देष की अर्थव्यवस्था का ध्यान भी तो रखना है राम प्यारे जी को।
 अब देखिये न मुझे कुछ खास लिखना तो आता नहीं है, पर क्या करूँ, टोपी पहननी है तो किसी न किसी के सर से उछालनी तो पड़ेगी ही।  हुआ यूँ कि अभी दो दिन पहले एक अखबारू देखा..........चौकिए मत तो क्या है न अभी मैं बच्चा हूँ उमर में कच्चा हूँ, तो ऐसी बातें तो हो ही जाती है।  बात यह है कि एक बिल्कुल अखबार जैसा कुछ देखा, जो बिल्कुल अखबार के बच्चे की तरह लग रहा था, तो प्यार उमड़ पड़ा।  क्यों न उमड़े आखिर।  बच्चे किसी के भी हों प्यारे लगते हैं, हाँ तो वही जो अखबार सा लग रहा था उसे ही अखबारू कह रहा हूँ, जैसे राजू, पारू, शेरू ....वगैरह............वगैरह।
 हाँ तो बात टोपी उछालने की थी.....तो ऐसा है, अभी उसी अखबारू में रामप्यारे जी का एक लेख छपा, लेख क्या टोपी-टोपी का खेल सा लगा। जिसमें उन्होंने बड़ी सफाई से टोपी पहनने के लिए अपने शहर की तमाम काव्य संस्थाओं को ही चुन लिया, बरस पड़े कवियों पर, कवि तुकबंदी करते हैं, एक दूसरे की वाहवाही करते हैं, नेताओं की टोपी उछालते हैं, कवि का एक झुनझुुना है आदि आदि।
राम प्यारे जी को लगता है कि कवियों को श्रोता नहीं मिलते, कवियों को कोई सुनता नहीं, इसलिए कवि मिल बैठ के अपने दुःख सुख बाँट लेते हैं, कवियों को काव्य रूपी दिये में अब तेल भी नहीं, कवि को कवि की बीबी ही नहीं सुनती, बच्चे दूर भागते हैं।  कवियों ने इतना लिख लिया कि उसके वजन से उनकी कमर दुहरी हो गयी......तो भी ठीक था, पर आप तो ऐसे बरस पड़े, गरज पड़े जैसे कि पड़ोसी के घर कार देखकर, दूसरा पड़ोसी अपनी मोटर साइकिल पटकने लगे।  अरे! राम प्यारे जीम ैं तो ठहरा अस्तित्वहीन प्राणी, पर आप तो अस्तित्व वाले महासमुद्र थे।  पर समुद्र तो गंभीरता के प्रतीक माने जाते हैं तो फिर ये बर्षाती नाले जैसे बाते.....माफ कीजियेगा वैसे एक बात बोलूँ राम प्यारे जी बुरा मत मानियेगा......वो कवि ही हैं जो इन तूफानों में भी साहित्य की लॉ जलाये हुये हैं।  दिल में साहित्य को जिंदा रखने का संकल्प संजोए हैंकृवैसे भी आपको नहीं मालूम ...पर मैं जब पैदा हुआ था मुझे घिसटना भी नहीं आता था....चलना और दौड़ना तो दूर पर यदि आपको बुरा लग ही गया था तो कवियों की पाठषाला में आ जाते, बिना किसी पूर्वाग्रह के कवि शायद बड़े ही सहृदय होते हैं, माफी माँग लेते।
 अब राम प्यारे जी से क्या कहें, राम प्यारे जी कहते हैं कवि, शायर नेताओं की उछालते हैं मतलब टोपी, इसलिए राम प्यारे जी ने उनकी.......अब आप कहेंगे मैं राम प्यारे जी की......तौबा-तौबा राम प्यारे जी ठहरे हमारे अग्रज। अब ये बात दूसरी है कि उन्हें न तो कविता लिखनी आती है न समझनी तो बेचारे उनका क्या कसूर।  अब वो ये समझें कि वो कवियों को नंगा करने का हुनर रखते हैं तो.....नहीं......भइया अंगेजों के लिए.....तुम क्या बोलेंगे, हमें तो खुद लिखना नहीं आता।  वैसे भी जब ईष्वर बुद्धि बाँट रहा था....हम थैला लेने चले गये थे और जब लौटे तो कन्ट्रोल की शम्मा की तरह बुद्धि खत्म हो गयी थी।  अब राम प्यारे जी को कितनी मिली थी.....हम कुछ नहीं बोलेंगे।  हम बोलेंगे तो बोलोगे कि बोलता है।  सच बोलें हम सोचते हैं कि टोपी हमारे सिर आ जाये पर क्या राम प्यारे जी हमें छोड़ देंगे ऐसे बड़ी मुष्किल से उन्होंने उतारी ....अभी पहनी भी नहीं कि कोई उतारने लगे-और चलो उतार भी ले तो क्या।....
 पत्रकारिता सम्माननीय है, लेख जन-जन के मार्ग दर्षन हैं, पर कोई इसे टोपी-टोपी का खेल बना दे भई हमें तो बुरा लगता है।  अब देखिये न श्याम प्यारे जी कविता लिखते हैं, राम प्यारे जी हास्त व्यंग्य, ये बात दूसरी कि किसी को हंसी नहीं आती वो राम प्यारे जी कहते हैं कविता ही घटिया है श्याम प्यारे जी घटिया है।  श्याम प्यारे जी लेख की उछालते हैं तो साथ में राम प्यारे जी की भी.......।  अब देखिए ना कवयित्री जी ने काव्य संग्रह छपवा भी लिया, अपने ख्याति के लिए अपने नाजुक हाथों से दस बीस पचास को उसकी प्रतियाँ दे भी दीं तो ये भी राम प्यारे जी को खल गयी। खल भी ऐसी गई कि कवयित्री को रूप रंग पे ही शुरू हो गये, बेहतर होता खुदा को ही षिकायती खत भेज देते, पर आप करते भी क्या, पुरूष अपनी शारीरिक सौष्ठव, अपने झूठी आन, शान के चोले में ढँका, औरत के अस्तित्व को स्वीकार ही कहॉ सका और तब जब नौहिकता में उससे मात खा जाये जहाँ सारे फैसले आज तक पुरूष ने लिये हो ।  (अब ऐसी भी नहीं कि मैं औरत के हर कदम का पक्षधर हूँ या यूं कहूँ कि औरत सिर्फ देवी ही है तो, आज के संदर्भ में औरत ने अपनी पहचान एवं खोने की राह चुनी है, पर औरत मंदोदरी भी है, सूर्पणखा भी, शबरी भी है........भी) कहीं ऐसा तो नहीं राम प्यारे जी आप हीन भावना से .............
 क्यों भइया टोपी मेरे सिर आ गयी न, कहो कैसी होगी।  अरे!  अरे! क्या कहा, मैंने गलत लिखा है, मुझे लिखना नहीं आता, अरे तुम ये क्या कह रहे, अरे क्या कर रहे हो, अरे...अरे....मेरी टोपी....टोपी....टोपी........

         रचनाकार
         डॉ0 आषुतोष मिश्र ‘आषु’

ASHUTOSH MISHRA 'ASHU'
AND COLLEGE OF PHARMACY
BABHNAN, GONDA
 MOBILE 9839167801
        
 

1 comment:

  1. वाह! क्या टोपी? और क्या मकसद? बधाई।

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