Friday 24 March 2017

(BP3) जिन्दगी कितनी ही जाने इक कहानी हो गयीं


जिन्दगी कितनी ही जाने इक कहानी हो गयीं
ताज बदले तो कई बातें पुरानी हो गयीं

इक नए सूरज के उगते ही छितिज़ पर यूं लगा
चारसू जैसे फिजाये ही सुहानी हो गयीं

अब कलम कागज की उनको है जरूरत ही कहाँ
जिन को लिखना था वो सब बातें जुवानी हो गयीं

कृष्ण के भीतर कही कुछ बात निश्चित खास थी
यूं नहीं सब गोपियाँ उसकी दीवानी हो गयीं

उजड़े ये घर, टूटी सडकें गन्दगी चरों तरफ
मुल्क की पहचान क्या ये ही निशानी हो गयीं

देखकर इस धूप को आँगन में पहली बार यूं
कोपलें मेरे चमन की जाफरानी हो गयीं

ये हकीकत की जमी उम्मीद से ज्यादा थीं सख्त
हौसलों से ख्वाहिशे पर आसमानी हो गयीं 

डॉ आशुतोष मिश्र 
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी बभनान गोंडा  उत्तर प्रदेश 
मोबाइल नो ९८३९१६७८०१
www.ashutoshmishrasagar.blogspot.in

Wednesday 22 March 2017

(OB 115) अधूरी रह जाती हैं मेरी हर रचना (BP 4)

अपनी जाई
गोद में खिलाई
लाडली सी बिटिया
जो कभी फूल
तो कभी चाँद नजर आती है/
जिसके लिए पिता का पितृत्व
और माँ की ममता
पलकें बिछाते हैं;
किन्तु उसी लाडली के
यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही,
उसके सुखी जीवन की कामना में जब
उसके हमसफ़र की तलाश की जाती है/
तब उसके चाल चलन
उसकी बोली , उसकी शिक्षा
रंग रूप , कद काठी
सब कुछ जांची परखी जाती है .....
किसी की नजर तलाशती है
उसमे काम की क्षमता
कोई ढूंढता है उसमें
अर्थोपार्जन में उसकी सहभागिता
कोई देखता है उसके रूप में सम्मोहन
हर नजर कुछ न कुछ तलाशती है
और खरी नहीं उतर पाती है
माँ की चाँद सी गुड़िया
हर जेहन में .....
कुछ बैसे ही ...जैसे
सधे हाँथों से पत्थर पर प्रहार करते हर मूर्तिकार को
नजर आती है उसकी मूर्ती
उसकी श्रेष्ठतम शिल्प
लेकिन उतरते ही हाट में
जब ढूँढने लगता है कोई साधक
मूरत में साधना के भाव
जब कोइ कला प्रेमी
निरखने लगता है मूरत का सौंदर्य
और जब कोइ ख्यातिलब्ध मूर्तिकार
जो मानता है कि और सधे होने थे हाँथ
तब किसी के दिल में बसती
किसी को न रुचती
और किसी के ठीक-ठाक है जैसे ख्यालों के साथ
आ जाती है सर्जक मूर्तिकार की मूर्ती
अपूर्णता के घेरे में ...
कुछ बैसे ही
मेरे सीने में छटपटाती
किसी ज्वालामुखी के लावा सम
मेरे लवो को चीर कर जन्म लेते मेरी रचना
या कभी शांत चित्त मन मस्तिष्क में उपज
उतरती है कागज पर;
ग्रीष्म कालिक नदी की तरह शनैः शनैः
और देती है
अपने जन्म पर
कुछ बैसा ही सुखद अहसास;
जैसा मिलता है किसी माँ को
प्रसव पीड़ा के बाद
अपने कलेजे के टुकड़े को सीने से लगाने में/
जिसमे महसूस होती है कभी
उगते सूरज की रश्मियों की गुनगुनाहट
कभी तपते सूरज की तपिश
कभी फूलों की खुश्बू
तो कभी खारों की चुभन
कभी जागरूक बनाती
कभी सचेत करती/
भावों की नदी से बहती प्रतीत होती
मेरी रचना,
शब्दों का सौन्दर्य बोध
धुन, लय ,
-पाठक की अपनी सोच से समरसता
समरूपता
जैसी तमाम
कसौटियो पर कसी जाती है
और लाडले बिटिया की तरह;
मूर्तिकार की मूरत की तरह
कहीं न कहीं से अपूर्ण रह जाती है

डॉ आशुतोष मिश्र
आचार्य नरेन्द्र देव कालेज आफ फार्मेसी
बभनान गोंडा उत्तर प्रदेश 9839167801









लिखिए अपनी भाषा में