दुआ करो की साहित्य उठ जाए
अनंत आकाश की ऊंचाइयों तक
और गले लगे लगा ले आकाश को
फिर मिलकर आकाश से
बना ले नया साहित्याकाश
और जिसकी सुखद छाव तले
पनप सकें
नए नए साहित्यकार
रच सकें एक नूतन साहित्य
एक ऐसा साहित्य ;
जो बदल दे जीवन
जो बिखेर सके अँधेरी जिंदगी में रौशनी
जो खिला दे मुरझाये चेहरों पर;
खिले गुलाब सी मुस्कान
जो वोदे नव क्रांति के बीज
जो जगा सके अंतःकरण को
जो साछात्कार करा सके पर- ब्रम्ह का
पर...
हाय रे बिधि का बिधान
अपने साहित्य की पोटली
अपनी कांख में दबाये
कूद रहे हैं हम लोग बार- बार
छूना चाहते हैं आकाश-
अपने हाथों से
छूना चाहते हैं आकाश-
अपने हाथों से
डॉ आशुतोष मिश्र
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान,गोंडा, उत्तरप्रदेश
मोबाइल न० ९८३९१६७८०१
पर...
ReplyDeleteहाय रे बिधि का बिधान
अपने साहित्य की पोटली
अपनी कांख में दबाये
कूद रहे हैं हम लोग बार- बार
छूना चाहते हैं आकाश-
अपने हाथों से
bahut sundar bhav mishra ji ...
sahity aap dwara kalpit unchaai prapt kare , yahi shubhkamna hai.
बड़ी सुन्दर परिकल्पना है, तभी साहित्य पनपेगा।
ReplyDeleteओह! बहुत सुन्दर आशुतोष जी.
ReplyDeleteअनुपम चिंतन है आपका.
आपकी सुन्दर प्रस्तुति से मन भावविभोर
हो गया है जी.
बहुत बहुत आभार और शुभकामनाएँ.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
'नाम जप' पर अपने अमूल्य विचार
व अनुभव प्रस्तुत करके अनुग्रहित कीजियेगा.
जो बदल दे जीवन
ReplyDeleteजो बिखेर सके अँधेरी जिंदगी में रौशनी
जो खिला दे मुरझाये चेहरों पर;
खिले गुलाब सी मुस्कान
....अद्वितीय आकांक्षा...बहुत सुंदर सोच...सुंदर अभिव्यक्ति..
बहुत अच्छा चिंतन,भावपूर्ण कविता !
ReplyDeleteसुन्दर चिंतन!
ReplyDeleteबहुत सुंदर कल्पना इश्वर करें साकार हो जाये , तभी साहित्य का उत्त्थान संभव है ....
ReplyDeleteसाहित्याकाश के लिए की गई सुंदर कामना फलीभूत हो।
ReplyDeleteबढि़या रचना।
अपने साहित्य की पोटली
ReplyDeleteअपनी कांख में दबाये
कूद रहे हैं हम लोग बार- बार
छूना चाहते हैं आकाश-
अपने हाथों से...
गहरी चोट....
प्रयास साहित्य को ही उठाने का होना चाहिये....
सुन्दर रचना...
सादर....
बहुत सुन्दर विचार है।
ReplyDeleteअच्छी रचना.....वर्तनी की बहुत सी अशुद्धियां हैं...जांच करें... ध्यान रखें ..नहीं तो साहित्य कैसे ऊंचा उठेगा .....
ReplyDeleteएक ऐसा साहित्य ;
ReplyDeleteजो बदल दे जीवन
जो बिखेर सके अँधेरी जिंदगी में रौशनी
जो खिला दे मुरझाये चेहरों पर;
खिले गुलाब सी मुस्कान
जो वोदे नव क्रांति के बीज.
बहुत सुंदर विचार और अच्छी रचना.
बहुत ही सुन्दर व्यंग लिखा है सर आपने. साहित्य को स्वरुप जो आप चाहते है वो शायद खोता जा रहा है.
ReplyDeleteकृपया पधारें ।
ReplyDeletehttp://poetry-kavita.blogspot.com/2011/11/blog-post_06.html
सही कहा आपने...|
ReplyDeletemeri dua hai ye dua kabool ho
ReplyDeleteजब तक आप जैसे लोग साहित्य के पोषक है यह विधा अनवरत प्रगति करेगा. और आने वाले नूतन साहित्यकार आप से प्रेरित होकर अवश्य ही आकाश की ऊचाई तक जाने में समर्थ होगे.
ReplyDeleteबेहतरीन प्रस्तुति।
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