Wednesday 10 August 2011

(A1/7) बहुत पागल हूँ मैं

     कभी कभी लगता है
    बहुत पागल हो गया हूँ मैं                      
     जो बदलना चाहता हूँ
  जंग लगी व्यबस्थाओं  को
 उन लोगों के सहारे
जो रच  बस गए हैं इसमें
 बन  गए हैं अभिन्न  अंग इनके
                     कभी कभी लगता है         
                   बहुत पागल हूँ मैं
                     जब टकराने लगता हूँ
                     बदलाव  की कोई उम्मीद;
                      अपने जेहन में संजोये
                       भली -भांति जानते हुए भी कि
                        सदियों दर सदियों
                         रूढ़ी पोषित
                        हिमालय से ऊंची
                    और समुद्र की गहरे से गहरी जड़ों वाली
                             परम्पराओं को हटाना तो दूर
                            संभव नहीं
                           हिला पाना भी।
   कभी कभी लगता है
 बहुत पागल हो गया हूँ मैं
 जब चीरने लगता हूँ
 बंजर  जमीन  का सीना 
  बोने लगता हूँ
 बीज आम, अमरुद के
 यही सोचकर शायद धरती मुस्कुराये
  फूलों को हँसता देखकर
  और शायद इसलिए भी
   की बढ़ जाये आक्सीजन आणुओं की संख्या
    इस जहरीले बायुमंडल  में
    दौड़ सके आक्सिहीमोग्लोबिन   धमनियों में
    चूम सकें माएं संततियों के गुलाबी गाल
     कर सके अहशास,
   अपने पूर्णत्व का जिंदगी भर
                    किन्तु कभी कभी लगता है
                    बहुत पागल हूँ मैं
                    जब जलाने   लगता हूँ दिए
                   अमाबस की रातों में
                   गहन तम से लड़ने के लिए बहां
                    जहाँ चमगादरी  संस्कृति में
                   पले बढे चूहे
                   पी जाते हैं दीयों का तेल
                   और इंसानों के शरीफ बच्चे
                   खेलते हैं दीयों से खेल
    कभी कभी लगता है
 बहुत पागल हूँ म
जब करने लगता हूँ संगठित
    लोगों को
     बस्ती में घुमते सूअरों;
      यत्र  तत्र बिखरी गंदगी;
       कीचड  में नहाई  सडकें;
       मच्छर  प्रजनन केंद्र बने पानी के पोखरों
         और
        हवा में तैरते धूल कणों के बिरोध में
                पर कभी कभी जब लगता है
                 बहुत पागल हो गया हूँ मैं
                  तभी- तभी लगता है
                   पागल ही सही
                    मैं लड़ता रहूँगा जंग लगी व्यबस्थाओं से
                   टकराता रहूँगा रुढ़िवादी परम्पराओं से
                    चीरता रहूँगा धरती का सीना   
                     बोता रहूँगा आम और अमरुद के बीज
                   जलाता रहूँगा  दिए अमावास की रातों में
                    और संगठित भी करता रहूँगा लोगों को
                     और शायद इसके लिए
                    पागलपन के एहसास की नहीं
                   बल्कि जरुरत है पागल होने की
                     क्योंकि युद्ध के मैदान में
                    आत्म  समर्पण से
                       कई गुना श्रेयस्कर है
                     संघर्ष करते हुए गले लगा लेना
                     मौत को

डॉ आशुतोष मिश्र
निदेशक
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान,गोंडा,उत्तरप्रदेश
मोबाइल न०-9839167801


















24 comments:

  1. गहन भावनाओं से ओतप्रोत एक मर्मस्पर्शी प्रस्तुति..आभार

    ReplyDelete
  2. हर लफ्ज़ में गहराई ... वाह !! क्या बात है ..

    ReplyDelete
  3. ek behtreen rachna man me dabi chingari jo kalam ke madhyam se sfutit hui.bahut achche vichar.badhaai.

    ReplyDelete
  4. बदलाव की कामना करने वाले पागल ही कहलाते हैं इस दुनिया में.
    यथार्थ के धरातल पर रची गयी एक सार्थक रचना....

    ReplyDelete
  5. सुन्दर सन्देश देती रचना

    ReplyDelete
  6. मैं लड़ता रहूँगा जंग लगी व्यबस्थाओं से
    टकराता रहूँगा रुढ़िवादी परम्पराओं से
    चीरता रहूँगा धरती का सीना
    बोता रहूँगा आम और अमरुद के बीज
    जलाता रहूँगा दिए अमावास की रातों में
    और संगठित भी करता रहूँगा लोगों को
    और शायद इसके लिए
    पागलपन के एहसास की नहीं
    बल्कि जरुरत है पागल होने की... bina pagalpan ki had tak gaye kuch pana asambhaw hai

    ReplyDelete
  7. bahut sateek aur saarthak , panktiyon men aakrosh saaf jhalakata hai. ye tevar jarooree hain.

    ReplyDelete
  8. मैं लड़ता रहूँगा जंग लगी व्यबस्थाओं से
    टकराता रहूँगा रुढ़िवादी परम्पराओं से
    चीरता रहूँगा धरती का सीना ...
    एक कोशिश क्या नहीं कर सकती ....बहुत बढ़िया

    ReplyDelete
  9. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लाजवाब प्रस्तुती! शानदार रचना!
    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://seawave-babli.blogspot.com/
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

    ReplyDelete
  10. मैं लड़ता रहूँगा जंग लगी व्यबस्थाओं से
    टकराता रहूँगा रुढ़िवादी परम्पराओं से
    चीरता रहूँगा धरती का सीना
    बोता रहूँगा आम और अमरुद के बीज

    बेहद खूबसूरत कविता.

    ReplyDelete
  11. यही पागलपन तो जगत में जीवन्तता बनाये रखता है।

    ReplyDelete
  12. आप जैसे लोगों की देश को अभी जरुरत भी है ........सार्थक पोस्ट

    ReplyDelete
  13. वाह लाजवाब प्रस्तुती !! क्या बात है !!
    बहुत बढ़िया....

    ReplyDelete
  14. Ham aapke sath hai..sundar rachana

    ReplyDelete
  15. ये संघर्ष तो जारी रखना ही होगा ... बहुत प्रभावी रचना है ...

    ReplyDelete
  16. मर्मस्पर्शी एवं भावपूर्ण काव्यपंक्तियों के लिए कोटिश: बधाई !

    ReplyDelete
  17. ऐसा पागलपन तो सभी में होना चाहिए।

    ReplyDelete
  18. aaj kal pagalpan ka hi javana aa gaya hai sir ji bahut achi marmsparshi kavita

    ReplyDelete
  19. आपको एवं आपके परिवार को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!
    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://seawave-babli.blogspot.com/
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

    ReplyDelete
  20. Waah! is paagalpalpan pr tp padhe likhe kurbaan. Bahut hi saargarbhit. Badhaai ho ..An article of quality, today need for such immolation..deed, activities.

    ReplyDelete
  21. achhi lagi rachna aapki aabhar ...........

    ReplyDelete
  22. पागल ही सही
    मैं लड़ता रहूँगा जंग लगी व्यबस्थाओं से

    सुंदर अभिव्यक्ति ..

    ReplyDelete

लिखिए अपनी भाषा में