मैंने चाहा भी तो यही था ...
मुझे याद हैं वो दिन
जब सिर्फ दो दिनों की मुझसे जुदाई
तुम्हे लगती थी सदियों की जुदाई
और बेचैन तुम
पूंछते फिरते थे
मेरे इस्ट-मित्रों , नातेदारों रिश्तेदारों से
मेरी खैरियत की खबर
लगा देते थे फ़ोनों की झड़ियाँ
पापा आप कहाँ हैं ?
पापा आप कैसे हैं?
सर आपको क्या हुआ ?
सुना है आपकी तबियत नासाज है!
भाई जी कहाँ हो?
अरे भूल गए क्या!
अमा कब मिलोगे, मुद्दत हो गयी
फिर समय के साथ तुम चढ़ते गए
सीढ़ियों पे सीढियां
उसी कल्पित आकाश की ऊचाइयों में
फिर भी अक्सर आते रहे तुम्हारे पत्र
तुम्हारे लम्बे पत्रों पर बिखरे होते थे
तुम्हारे प्रेमाश्रु शब्दों की तरह
तुम्हारे, मेरे प्रति; प्रेम के प्रतीक बनकर ....
जैसे जैसे तुम सीढियां चढ़ते जा रहे थे
उससे भी कहीं द्रुत गति से
कम होती जा रही थी
डाकिये की दरवाजे पर होने वाली दस्तकें
और छोटे होते जा रहे थे तुम्हारे पत्र
सिमटते जा रहे थे प्रेम प्रतीक प्रेमाश्रु....
अब एक जमाने से नहीं सुनी है मैंने
डाकिये की दरवाजे पर दस्तक
अब मोबाइल खनकते हैं
और मिलते हैं महज औपचारिकता निभाते
एस ऍम एस बधाई संदेशों की तरह
या फेसबुक पर तुम्हारी
सफलता की पायदान पर
कदम स्थापित करती हुई तुम्हारी तस्वीरें
किन्तु जब बंद हुए थे तुम्हारे पत्र
मुस्कराहट मेरे होंठो पर थिरकी थी
जब बंद हुए थे तुम्हारे एस ऍम एस
मैं मुस्कुराया था
मैं हंसा था जब तुम लगा रहे थे
फेसबुक पर अपनी सफलता की तस्वीरें
लेकिन जब तुम गुमनाम हो गए
समझ गया मैं की तुमने चढ़ ली हैं साडी सीढियां
जान लिया, की चूम लिया है तुमने,
अपने होंठों से; अपनी कल्पनाओं का आकाश
आज मेरा मन गदगद हो गया है
फूट पड़े है मेरी आँखों से अश्कों के झरने
क्योंकि शायद
एक पिता,
एक दोस्त,
एक गुरु के रूप में,
मैंने चाहा भी तो यही था ...............
डॉ आशुतोष मिश्र
निदेशक
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान, गोंडा उत्तरप्रदेश
मोबाइल नो 9839167801
मुझे याद हैं वो दिन
जब सिर्फ दो दिनों की मुझसे जुदाई
तुम्हे लगती थी सदियों की जुदाई
और बेचैन तुम
पूंछते फिरते थे
मेरे इस्ट-मित्रों , नातेदारों रिश्तेदारों से
मेरी खैरियत की खबर
लगा देते थे फ़ोनों की झड़ियाँ
पापा आप कहाँ हैं ?
पापा आप कैसे हैं?
सर आपको क्या हुआ ?
सुना है आपकी तबियत नासाज है!
भाई जी कहाँ हो?
अरे भूल गए क्या!
अमा कब मिलोगे, मुद्दत हो गयी
फिर समय के साथ तुम चढ़ते गए
सीढ़ियों पे सीढियां
उसी कल्पित आकाश की ऊचाइयों में
फिर भी अक्सर आते रहे तुम्हारे पत्र
तुम्हारे लम्बे पत्रों पर बिखरे होते थे
तुम्हारे प्रेमाश्रु शब्दों की तरह
तुम्हारे, मेरे प्रति; प्रेम के प्रतीक बनकर ....
जैसे जैसे तुम सीढियां चढ़ते जा रहे थे
उससे भी कहीं द्रुत गति से
कम होती जा रही थी
डाकिये की दरवाजे पर होने वाली दस्तकें
और छोटे होते जा रहे थे तुम्हारे पत्र
सिमटते जा रहे थे प्रेम प्रतीक प्रेमाश्रु....
अब एक जमाने से नहीं सुनी है मैंने
डाकिये की दरवाजे पर दस्तक
अब मोबाइल खनकते हैं
और मिलते हैं महज औपचारिकता निभाते
एस ऍम एस बधाई संदेशों की तरह
या फेसबुक पर तुम्हारी
सफलता की पायदान पर
कदम स्थापित करती हुई तुम्हारी तस्वीरें
किन्तु जब बंद हुए थे तुम्हारे पत्र
मुस्कराहट मेरे होंठो पर थिरकी थी
जब बंद हुए थे तुम्हारे एस ऍम एस
मैं मुस्कुराया था
मैं हंसा था जब तुम लगा रहे थे
फेसबुक पर अपनी सफलता की तस्वीरें
लेकिन जब तुम गुमनाम हो गए
समझ गया मैं की तुमने चढ़ ली हैं साडी सीढियां
जान लिया, की चूम लिया है तुमने,
अपने होंठों से; अपनी कल्पनाओं का आकाश
आज मेरा मन गदगद हो गया है
फूट पड़े है मेरी आँखों से अश्कों के झरने
क्योंकि शायद
एक पिता,
एक दोस्त,
एक गुरु के रूप में,
मैंने चाहा भी तो यही था ...............
डॉ आशुतोष मिश्र
निदेशक
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान, गोंडा उत्तरप्रदेश
मोबाइल नो 9839167801
शुक्रवारीय चर्चा-मंच पर है यह उत्तम प्रस्तुति ||
ReplyDeleteजैसे जैसे तुम सीढियां चढ़ते जा रहे थे
ReplyDeleteउससे भी कहीं द्रुत गति से
कम होती जा रही थी
डाकिये की दरवाजे पर होने वाली दस्तकें
और छोटे होते जा रहे थे तुम्हारे पत्र
सिमटते जा रहे थे प्रेम प्रतीक प्रेमाश्रु....dard hai, per sukun tum safal ho rahe
accha likha hai aapne bahut khoob saarthak prastuti ...http://mhare-anubhav.blogspot.com/ iske saath-saath naye blog aapki pasand par bhi aapka svagat hai samay mile to zarur aaiyegaa meri post par
ReplyDeletegood
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति...!
ReplyDeleteभाव बहते चले गए हों जैसे और हमने महसूस कर लिए हों पत्रों में बिखरे सघन प्रेमाश्रु !
एक कहानी सी बह गयी कविता।
ReplyDeletejaanleva hoti hain kuchh safaltaayen lekin fir bhi man ko bhati hai ajeeb manosthiti hai.
ReplyDeleteacchhe se shabdon me dhaal kar sashakt chitran kar diya hai.
आज मेरा मन गदगद हो गया है
ReplyDeleteफूट पड़े है मेरी आँखों से अश्कों के झरने
क्योंकि शायद
एक पिता,
एक दोस्त,
एक गुरु के रूप में,
मैंने चाहा भी तो यही था ...............
बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति है आपकी.
दिल को झकझोरती हुई,कटु सत्य और
वास्तविकता का अनुभव कराती हुई.
जीवन के चार आश्रमों में अंतिम संन्यास
आश्रम में इसीलिए मन को सब ओर से निकाल
कर केवल 'परम तत्व' के चिंतन में लगा देना
ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार जी.
जीवन के विभिन्न पड़ावों पर होने वाले बदलावों की सटीक प्रस्तुति... हम यही तो चाहते थे... फिर ऐसा होने पर ईश्वर का धन्यवाद ही देना चाहिए....
ReplyDeleteआह ...कितने सुन्दर शब्द और भावो में आपने हर रिश्ते को परिभाषित कर दिया ...उम्दा
ReplyDeleteati sundar abhivaykti...
ReplyDeleteये आज का सच है ,हम सभी का .. बढ़िया लिखा है.
ReplyDeletebahut sarahniye vishesh prastuti.ek pita/guru ke harday ki aavaaz.
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए धन्यवाद । मरे नए पोस्ट :साहिर लुधियानवी" पर आपका इंतजार रहेगा ।
ReplyDeleteएक भावप्रवण रचना |बधाई |
ReplyDeleteआशा
This comment has been removed by the author.
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ReplyDeleteएक सुबह अपनों ने जगाया मुझे,
ReplyDeleteआशीर्वाद दिया और बोला कि जाना है तुम्हे कुछ करना है..
आँख मलता मैं जाना नहीं चाहता था ...
पापा रोक लो, मम्मी रोक लो , प्रिये मैं नहीं जाना चाहता
पर किसी ने न सुनी .....................
बाहर बहुत रौशनी थी, चश्मा लगा लिया था
लोग चिल्ला रहे थे तो इयर फोन ठूस लिया था कानो में
खाना भी घर जैसा नहीं मिला मुझे
जो मिला उसी में घर का भाव खोजा था मैंने,
पृथक ना हो जाऊ, सो चाल और बोल
दोनों नयी सीख ली थी.....
एक दिन रात को नीद नहीं आ रही थी
घुटन महसूस होने लगी ,
मन भर के रोया ....
हसरत थी कि मम्मी , पापा, प्रिये
काश कमरे के कोने से
चुपके से देख लेती मेरी पीड़ा तुम,
तो समझ जाती कि जिस रवि को
तुने सींचा था अपने भावो से वो वैसा ही है ,
जलता है , कोसता है अपने में हुए भौतिक परिवर्तन को
जिसको तुमने स्थायी समझ लिया है .....
http://alfaaz-e-ravi.blogspot.com/