झुकी निगाह से जलवे कमल के देखते हैं
लगे न हाथ कहीं हम संभल के देखते हैं
ग़जल लिखी हमे ही हम महल मे देखते हैं
अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
हया ने रोक दिया है कदम बढ़ाने से पर
जरा मगर मेरे हमदम पिघल के देखते हैं
कहीं किसी ने बुलाया हताश हो हमको
सभी हैं सोये जरा हम निकल के देखते हैं
तमाम जद मे घिरी है ये जिन्दगी अपनी
जरा अभी गुड़ियों सा मचल के देखते हैं
हमें बताने लगा जग जवान हो तुम अब
अभी ढलान से पर हम फिसल के देखते हैं
कभी नहीं मुझे भाया हसीन हो रुसवा
खिला गुलाब शराबी मसल के देखते हैं
अभी दिमाग मे बचपन मचल रहा अपने
किसी खिलोने से हम भी बहल के देखते हैं
हयात जब से मशीनी हुई लगे डर पर
चलो ए आशु जरा हम बदल के देखते हैं
डॉ आशुतोष मिश्र , निदेशक
,आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी बभनान,गोंडा, उत्तरप्रदेश मो० ९८३९१६७८०१
वाह, बहुत ख़ूब
ReplyDeleteAwesome creation ! Badhayi !
ReplyDeleteबहुत बढ़िया आदरणीय
ReplyDeleteबहुत खूब
ReplyDeleteबहुत खूब .....बेहतरीन
ReplyDeleteजरा हम भी बदल के देखते हैं
ReplyDeleteबहुत खूब भाईजी।
wah wah...dil khush kar diya sir
ReplyDeleteकभी नहीं मुझे भाया हसीन हो रुसवा
ReplyDeleteखिला गुलाब शराबी मसल के देखते हैं
hr sher kabile tareef ....hardik badhai .
बहुत बढ़िया सर जी.....
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