आसान हो गयी है मौत
कितना सहज था
कितना सरल था जीवन
जब रिश्ते सिर्फ नाम नहीं थे
जीवन्तता थी हर रिश्ते में
जब मामूली सी खरोंच पर
घबराई माँ फाड़ कर बाँध देती थी अपना आँचल
नन्हे मासूम का तनिक से क्रंदन पर
बेतहाशा भागते थे बैद्यों, हकीमों, डाक्टरों के घर
मासूम को गोद में लिए पिता मीलों-मील
बाबा की उंगलियाँ पकड़ चलता
दादी के साथ अठखेलियों में मस्त
नानी की कहानियों का नियमित श्रोता
और नाना की आँखों का तारा ..मासूम बचपन
कई मर्तबा दादा दादी नाना नानी बन जाने पर भी
सर पर हाथ बना रहता था माता पिता का
और एक सुखद अहसास ताउम्र बना रहता था
दादा दादी नाना नानी का –
उनके न होने पर भी ...............
बंधू बांधव, सखा- मित्र
बेटा- बहू, नाती- पोते
और भी न जाने सजीव रिश्ते
अपने विविध नामकरनों,
विविध रूपों में,
अपनी एक बिशेष हद
और अधिकार के साथ ,
रिश्तों की शक्ल में ढली तमाम देवियाँ ..
हर गम –ख़ुशी, जश्न- मातम
में होते थे शरीक न जाने कितने अपने
चुटकियों में हो जाते थे पहाड़ से बोझिल तमाम काम
तब मौत बहुत कठिन थी
घूम जाता था एक एक चेहरा आंखो में
मौत का ख्याल आते ही
मृत्यु शय्या पर भी अनवरत बेचेनी के साथ
बाट जोहती आँखें देख लेना चाहती थीं जीभर
अपने हर प्रिय को आख़िरी बार
कुशल क्षेम भी पूछ लेती थी
आशीषों की झड़ी भी लगा देती थी जुवान
उठ जाती थीं बाहें कलेजे से लगाने को भी
सामर्थ्य के तनिक भी अहसास से
सबकी नजरों से नजरें मिलते हुए
रामचरित मानस के पाठ श्रवन
गंगा जल और तुलसी दल के साथ
जिह्वां के अंतिम साक्षात्कार के साथ
कितनी मुश्किल से निकले थे प्राण ..
पर आज
दोस्ती के भ्रम का पर्याय दोस्त
सीप के तरह अपने कवच में छुपे ईस्ट मित्रों रिश्तेदारों
भौतिक वादी युग में
हर चीज की आवश्यकता की तरह
स्त्री पुरुष का पति पत्नी में तब्दील रिश्ता
अपनी धुन, अपने सपनो ,में खोयी नयी फसल
थरथराती जुवान
सन्नाटों में घिरे मकान
धूमिल आँखें
जर्जर शरीर
और बेहद जरूरत के क्षणों में ही
बेहद तनहा और टूटा हर इंसान
आज भी सुनकर सांकल की आवाज
दौड़ता पड़ता है दर की तरफ
और फिर उतनी तीव्रता से लौटता है
हवा को गरियाता हुआ
जानता है बख़ूबी
अब न चिट्ठियाँ आयेंगी न डाकिया
अब आयेंगे मेसेज और फ़ोन
जिनके अत्याधुनिकीकरण से बैठा नहीं पायेगा वो तालमेल
संपत्ति की उत्तराधिकरी होने की मजबूरी
या जीवन में कभी भी लिखी जा सकने वाला बरासतनामा
रोक रहा है धर्मपत्नी को , बेमन
और बच्चों के डालरों के आगे अर्थहीन है
रुपयों के मोल बिकने वाली पिता की संपत्ति भी
स्वार्थ में डूबे रिश्ते
अहसान फरामोश बच्चे
रिश्तों के नाम पर सिर्फ नाम के रिश्ते
तोड़ देते हैं तमामों भ्रम
जो टूटा करते थे कपाल क्रिया में
जलती लाश के सर पर
निज पुत्र के बॉस प्रहार से........
आज मौत से पहले बहुत पहले
टूट जाते हैं सारे भ्रम
बड़ी मुश्किल से कटते हैं
जिन्दगी के एक एक पल
हर दिन पीते हुए अपने ही आंसू
इंतज़ार करता है इंसान मौत का
सुहाग रात में नव वधु के सेज पर इंतज़ार की तरह
जीवन जितना कठिन हो रहा है
उतनी ही आसान हो रही है मौत !
डॉ आशुतोष मिश्र निदेशक आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसीबभनान, गोंडा , उत्तरप्रदेशमोबाइल न० ९८३९१६७८०१
बहुत भावपूर्ण कविता है.आज के समाज को आईना दिखा दिया हो .बदलते समय में बदलते रिश्ते और उनका दर्द कौन कितना समझ पा रहा है?इंसान की जान सस्ती हो गयी है और रिश्ते भी कांच समान कच्चे.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - रविवार - 15/09/2013 को
ReplyDeleteभारत की पहचान है हिंदी - हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः18 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
जीवन जितना कठिन हो रहा है
ReplyDeleteउतनी ही आसान हो रही है मौत !
सार्थक लेखन |
भावपूर्ण कविता.
ReplyDeleteकितना चमत्कारी है : रुद्राक्ष
समाज को आइना दिखाता सुंदर सृजन ! बेहतरीन प्रस्तुति ! बधाई
ReplyDeleteRECENT POST : बिखरे स्वर.
सरल कठिन है जीवन पग पग..
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट
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ReplyDeleteमर्म को झझकोरती हुई प्रवाहमयी रचना . सच! अब तो जीते जी ही जहाँ-तहाँ कपाल क्रिया.. कोई मातम मनाने वाला भी नहीं..