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चलते चलते इन राहों में जब मिल जाती हो तुम
जाने क्या हो जाता है जो यूं शरमाती हो तुम
तेरी आँखों में लगता है काला कोइ जादू
जिसपे नजरें पड़ जाती उसको भरमाती हो तुम
इक पल को आती हो छत पर फिर गुम हो जाती हो
क्या बच्चो के जैसा ही मुझको बहलाती हो तुम?
उजला खिला तुम्हारा यौवन जब फूलों सा भाये
तब क्यूँ छुईमुई सा छू लेने पर सकुचाती हो तुम
तेरी इन मादक आँखों से मदिरा छलका करती
मुझ जैसे सीधे सादो को क्यूँ बहकाती हो तुम
जर्रे-जर्रे को बागों के जैसे गुल महकाते
बैसे घुल साँसों में जीवन को महकाती हो तुम
सागर लहरों में इक नैया ज्यों हिचकोले खाए
पागल हो मन जब इक नागिन सा लहराती हो तुम
चंचल मन मदमाता योवन नीली- नीली आँखें
तिरक्षी नजरों से प्रेमी मन को ललचाती हो तुम
डॉ आशुतोष मिश्र BP1
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी बभनान गोंडा उत्तर प्रदेश 9839167801
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी बभनान गोंडा उत्तर प्रदेश 9839167801
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल हर बार की तरह आपके शब्द मन को छूते जा रहे है ---
ReplyDeleteआदरणीय आज बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आना हुआ आपकी प्रतिक्रिया से बड़ा सुखद अहसास हुआ ...सादर
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