देखते आइना क्यों हो जरा देखो निगाहों में
सवारेंगे तुम्हे हम खुद चले भी आओ बांहों में
नहीं शिकवा हमें है कोई पल भर जिंदगानी से
मगर शै बस वो पल गुजरे हसीनो की पनाहों में
उल्फत में सजा-ए-मौत मत कर यूं मुक़र्रर तू
उमर भर कैद दिल की बस सजा हैं इन गुनाहों में
मिले हो जब भी महफिल में लगे हो तुम बड़े दिलकश
हया फिर हमसे है कैसी मिले हो जब भी राहों में
खताएं ज़िन्दगी की कुछ बहुत ही खूबसूरत हैं
खता कर बैठे, उलझे जब तिलिस्मी इन अदाओं में
समझती जिनको दुनिया है अभी तक बूंद-ए-शबनम ही
मेरी आँखों के आंसू है जो बिखरे हैं फिजाओं में
डॉ आशुतोष मिश्र
डायरेक्टर
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान, गोंडा, उत्तरप्रदेश
मोबाइल न० 9839167801
'समझती जिनको दुनिया है अभी तक बूंद-ए-शबनम ही
ReplyDeleteमेरी आँखों के आंसू है जो बिखरे हैं फिजाओं में'
बहुत भावपूर्ण रचना...बहुत ही सुन्दर...बधाई सर!
(हमारी ज़ानिब भी आपकी निगाहे-क़रम हो जाया करे कभी-कभी)
उल्फत में सजा-ए-मौत मत कर यूं मुक़र्रर तू
ReplyDeleteउमर भर कैद दिल की बस सजा हैं इन गुनाहों में
its marvelous sir ji
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ReplyDeleteसमझती जिनको दुनिया है अभी तक बूंद-ए-शबनम ही
मेरी आँखों के आंसू है जो बिखरे हैं फिजाओं में
। काश कोई ये समझ तो पाता की फिजा में बिखरी बूंदों की ख़ूबसूरती का राज क्या है , किसी की मुस्कुराहटें तो किसी के आँसू भी शामिल हैं उनमें।
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