Monday, 30 May 2011

(OB 20)मौसम-ए-इश्क हसीं प्यास जगा जाता है (BP 71)


2122     /1122    /1122        /22

मौसम-ए-इश्क हसीं प्यास जगा जाता है
प्रेमी जोड़ों का सुकूँ चैन चुरा जाता है

दिल की धड़कन को बढ़ा सीने में तूफ़ान छुपा
मौसम-ए-इश्क दबे पाँब चला जाता  है

सर्द हो  रात  हो बरसात का मादक मंजर
मौसम-ए-इश्क  सदा सब को जला जाता है

दर्द  ऐसा  भी है, अहसास सुखद है जिसका
मौसम-ए-इश्क वो अहसास करा जाता  है

देख आँखों मे चमक गुल की यूँ  हैराँ मत हो
मौसम-ए-इश्क हसी नूर खिला जाता है

गैर अपनों से लगें अपने लगें गैरों से
मौसम-ए-इश्क तमाशा यूँ दिखा जाता है

डॉ आशुतोष मिश्र
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान, गोंडा, उत्तर प्रदेश
मोबाइल न० ९८३९१६७८०१

Saturday, 28 May 2011

❤️(BP 72) दिल नें माना ही कहाँ था की वो परायी थी

2122 1122 1122  22 112
जब वो बिछड़ा था कसम उसने मेरी खाई   थी
कुछ दिनों    तक   तो उसे याद मेरी आयी   थी

वो    सहारा   थी   मेरी,   मैं   था   सहारा    उसका
वो  मेरी नज़्म ग़ज़ल छंद ओ'र रुबाई थी


मुद्दतों तक यूँ भटकते हुए ख़त जो आया
साथ उसके मेरे माज़ी की महक आयी थी

जिसकी हर शै प थिरकती थी तबस्सुम लब पर
जाने क्यों आज नदी आँखों  से बह आयी थी

ए हवा कह दो खड़ा आज भी उस मोड़ प हूँ
  आख़िरी बार कभी वो जहाँ मुस्कायी थी

दिल का दर बन्द न हो सकता कभी उसके लिए
दिल को "आशू" जो बना कर गयी सौदाई थी


डॉ आशुतोष मिश्र
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान गोंडा उत्तर प्रदेश
मोबाइल ९८३९१६७८०१




Friday, 13 May 2011

(BP 75) BADE AADMI KI PEHCHHAN


बड़े आदमी की पहचान 
एक दिन मेरी लाडली बिटिया मुझसे प्यार से बोली 
पापा मेरी एक पहेली सुल्झायिये 
बड़े और छोटे आदमी का रहस्य बताईये 
मैंने कहा और फरमाइए 
बिटिया छोटा आदमी छोटा है 
बड़ा आदमी बड़ा है 
जैसे सूरज बड़ा है और तारा छोटा है 
बिटिया ने कहा सर घुमाईये 
देख्यिये कैसे एक बड़ा आदमी छोटे को बड़ा बता रहा है 
उसके सजदे में सर झुका रहा है 
तो मैंने भी जबाब को घुमाया 
बिटिया सूरज बड़ा है मगर छोटा है 
तारा छोटा है मगर बड़ा है 
बड़े तारे के आगे एक और बड़ा पड़ा है 
और इस पड़े के आगे एक और खड़ा है 
मतलब जो दिख रहा है वो है नहीं 
और जो है वो दिख नहीं रहा है 
मैंने जब तक गुत्थी सुलझाई 
बिटिया एक और प्रश्न सामने ले आयी 
बोली मुझे मत उल्झायिये 
आदमी आदमी एक समान हैं 
फिर छोटे बड़े की समस्या का क्या समाधान है 
मैंने समझाया ये बहुत आसान है 
बड़े आदमी की कुछ पहचान है 
जो वोलता हो पैर बहुत कम बोले 
बोलना चाहता हो पर मुह न खोले 

सड़क पर आप को देख कर अनजान बन जाए 
पहचान कर भी पहचान न पाए 
अपना काम पड़ने पे मुस्कान ओंठों पे थिरकाए 
काम निकलते ही गुमनाम हो जाए 
जो आपकी दोस्ती के निवेदन को ठुकराए 
आपकी बातों का जवाब देने से कतराए 
ऐसा आदमी ही बड़ा आदमी कहलाये 
बिटिया ने कहा कोई कंफरमेटरी टेस्ट लगाइए 
मैंने कहा पहले दोप्स पर ही आजमाईये   
एक प्यारी सी सौगात हंसती हंसाती गुदगुदाती बात 
या फिर दोस्ती का बढ़ा हुआ हाथ फेस बुक पर लगाईये 
पहचान के नियम सुच सच नजर आयेंगे 
परिणाम आपको मिल जायेंगे 
छोटा छोटा है बड़ा बड़ा है 
या बड़ा छोटा है छोटा बड़ा है 
तमाम प्रश्नों का उत्तर मिल जाएगा 
डॉ आशुतोष मिश्र 
आचार्य नरेन्द्र देव कालेज आफ फार्मेसी बभनान गोंडा 
उत्तर प्रदेश ९८३९१६७८०१
www.ashutosmishrasagar blogspot.in 
www.drashutoshmishradopssagar.blogspot.in 


Monday, 9 May 2011

(BP 75) मेरा घर सामने है आया करो

हमें    देख    कर        मुस्कुराया करो
थोडा      हंसो      हंसा     जाया    करो
फासले बढ़ते है ताउम्र दूर रहने से
मेरा घर     सामने    है    आया  करो

डॉ आशुतोष मिश्र

Monday, 2 May 2011

only for DOPS alumni

               Only for Dr HSGVV Sagar Alumni
                ntwritten on the occasion of swarn jayanti samaharoh of the departme
यही उस समंदर का अजनबी किनारा है 
जहाँ पर मिले थे हम कभी अजनबी 
यहीं पर वो लहरें हैं यहीं पर वो गीत हैं 
यहीं पर धडकता दिल है यही पर वो मीत हैं  
यही उस समंदर का अजनबी किनारा है 
जहाँ पर मिले थे हम कभी अजनबी 

यहाँ पर सभी को मिली अपनी मंजिल 
किसी को गमे महफ़िल  किसी को हसीन दिल 
कोई नाजनीनो को बस देख पाया 
किसी ने गुलों  संग घरोंदा बसाया 
यही उस समंदर का अजनबी किनारा है 
जहाँ पर मिले थे हम कभी अजनबी 
यहाँ  धडकनों की सदा अब भी आये 
कोई कांच मंदिर उठकर तो जाए 
यहाँ रान गिरी जंगल वो पानी की झील है 
यहाँ पर परेट मंदिर ,  मोटल कैटी है 
यहाँ सागर झील है यहाँ वीला डैम है 
जो कुछ भी मैंने कहा सब उसके फैन हैं 
राहत  मिली है राहत गढ़ में 
जमी से भी कितना ऊपर यूं चढ़के 
यहाँ की हवाओं में मुहब्बत के नगमें 
यहाँ की फिजाओं में बिखरे हैं सपने 
यही उस समंदर  का अजनबी किनारा है 
जहाँ पर मिले थे हम कभी अजनबी 


My unveil emotion

Saturday, 2 April 2011

ईना......... मीना......... डीका

                                        ईना......... मीना......... डीका
 भारत में क्रिकेट अब धर्मवत् हो गया है उसका कोई भी मैच मनोरंजन का पर्याय हो सकता है लेकिन विशेष रूप से भारत और पाकिस्तान मुल्क के बीच जब-2 यह खेल हो तब  ऐसा प्रतीत होता है कि मानो खेल नहीं कोई युद्ध चल रहा हो।  भावनात्मक रूप से जुड़े कितने ही लोग इस हार-जीत को जीवन की हार-जीत मान बैठते हैं और फिर विश्व कप का मैच हो तो क्या कहने!  लगता है किसी धर्म यु,द्ध का ही ऐलान हो।  मोहाली के मैदान में परिणामस्वरूप दोनों ही मुल्क के कुछ लोगों ने अपनी जान गँवा दी।  मैं अजीबोगरीब मनोस्थिति में अपने घर के बाहर बैठा कुछ सोच रहा था और टी.वी. पर बड़े ही जोर-शोर से मुम्बई मंे खेले जाने वाले फाइनल मैच की चर्चा बड़े ही जोर से कानों में गूँज रही थी।  इस मुल्क के लोगों के दिल तब तक दु्रतिगति से धड़कते रहेंगे जब तक माही सेना के कमाण्डर माही के हाथों में चमचमाता विश्व कप नहीं होगा और यदि ऐसा नहीं हुआ तो क्या होगा?  किस तरह की मनोस्थिति होगी?  इन्हीं ख्यालों में उलझा हुआ मैं सड़क पर घूम रहे- किसी भी खेल एवं देश के तथाकथित राजनेताओं के ओछी राजनीति के तनाव से मुक्त,- अश्व और श्वान प्रजाति के सदस्य निश्छल प्रेम प्रक्रिया में संलग्न उन्मुक्त विचरण कर रहे थे। उनकी निश्छलता सोचने पर विवश कर रही थी कि मानव प्रजाति को अश्व, श्वान प्रजाति का अनुसरण करना है अथवा अश्व, श्वान प्रजाति को मानव प्रजाति का।  विकास की विभिन्न अवस्थाओं में जीवन यापन करने वाली विविध विश्व प्रजातियों में कितना अन्तर है।  अभी मैं सोच के गहरे सागर में डुबकी लगा ही रहा था -तभी मेरे एक मित्र; जिन्हें प्यार से मैं क्रिकेट की जांेक कहता हूँ; ने मेरे ध्यान में विघ्न डालते हुए कहा- तुम यूँ ही सड़क पर सड़क देखो- पता है तुम्हें आज की ब्रेकिंग न्यूज क्या है मैंने कहा न तो मुझे मालूम है न ही इसे जानने में मेरी कोई दिलचस्पी है।  पुनः संवाद स्थापित करने की मंशा से उसने कहा आज एक मॉडल फाइनल मैच में भारत की जीत होने पर मैदान अथवा डेªसिंग रूम में अपने को निर्वस्त्र कर देगी।  बिना उसकी ओर मुखातिब हुए मैंने सिर्फ कह दिया कि कोई गधी होगी वह भी शायद इसलिए कि उन्मुक्तता और आधुनिकता की वर्तमान में स्थापित परिभाषा के अनुसार भारत की श्वान प्रजाति के सदस्य विकासक्रम में सबसे आगे हैं और मानव प्रजाति को उसका अनुसरण करते हुए श्वान प्रजाति से प्रतिस्पर्द्धा जीतने में अभी कई शताब्दियाँ लग सकती है।  किन्तु मेरे क्रिकेट प्रेमी मित्र को यह बात खल गयी और जितनी भी असामाजिक भाषा के शब्द उसने सीखे थे; मुझ पर झड़ी लगा दी।  मैं हैरान था कि क्रिकेट का अदभुत प्रेमी ईना मीना डीका का प्रेमी कैसे हो गया?  मैंने तो यूँ ही सहजता से टिप्पणी कर दी क्योंकि सीता, सावित्री की वंशज- जिनके तन  सूरज और चाँद भी नहीं देख सके- इस देश की शु,द्ध वंशावली की कोई बालिका नवयौवना अथवा महिला इस तरह की बेहूदगी भरी बात शायद कभी नहीं करेगी किन्तु मेरे मित्र की आँखों में व्याप्त रोष और फिर उसके शब्दो- जानते हो तुम क्या कह रहे हो;  वह यदि जान ले तो तुम्हें नाकों चने चबवा दे- बड़े-2 राजनैतिक और फिल्मी हस्तियों से उसके सम्बन्ध हैं जो तुम्हारा भूसा निकाल देंगे और तुम्हारे चेहरे का भूगोल बिगाड़ देंगे- ने मुझे झकझोर दिया। शान्त तालाब में कंकड़ी मारते रहिए कोई बात नहीं; चट्टाने फंेकने लगेंगे तो बड़ी लहरों का उठना स्वाभाविक है।  प्रहार पर प्रहार जब असहनीय हो गये तो मुझे भी रोष आ गया और मैंने कहा जाकर जो कहना है कह दो। जिस देश में सचिन को भगवान, क्रिकेट को धर्म माना जाता है वहाँ उसे कपड़े उतारने के लिए डेªसिंग रूम ही मिला; उतारने ही है तो जाये किसी समुद्री बीच पर उतारे या सड़क पर।  आखिर मुझे समझ में नहीं आता है कि अपने आप को आधुनिक दिखाने की होड़ अथवा अश्व अथवा श्वान प्रजाति से प्रतिस्पर्धा में होली बोली टोली बुड की तमाम ईना मीना डीकाओं ने अपनी मादक अदाओं और अंदाजों के साथ अभी तक जो भी दिखाया है उसे देखकर तो कभी नहीं लगा कि विश्व के तमाम नारी प्रजाति इनसे वंचित हैं।  जहाँ तक पुरुष के मोहभंग की बात है तो उसे अपनी कोख से पैदा कर अपने स्तनों से दुग्ध पान कराकर उसके गुलाबी अधरों को चूमकर माँ के रूप में नारी ने नारी के पवित्र तन के रहस्य को बचपन में उजागर कर दिया था।  सुदूर जंगलों में रहने वाली ग्रामीण आदिवासी बालाओं के सुडौल वक्ष गहन केशराशि मधुमाता यौवन और उनकी कमनीयता किसी भी होली बॉली टॉली बुड की ईना मीना डीकाओं को शर्मसार करने के लिए काफी हैं।  नग्नता की होड़ में जो कुछ प्रदर्शित किया गया था न तो वह रहस्यमयी था न ही जो प्रदर्शित किया जाना है वह रहस्यमयी है।  मीडिया अपनी नैतिक जिम्मेदारी को दरकिनार करते हुए बेहूदगी को जिस प्रकार बार-2 चर्चित करना चाहता है; शर्मनाक है।  देश के सामाजिक, घार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों पर इस तरह की चोट जिन्हें बर्दाश्त हो वह करे मुूझे तो यह बिल्कुल रास नहीं आता।  अभी तक मैंने अश्व प्रजाति, श्वान प्रजाति जैसे साहित्यिक शब्दों का प्रयोग संकेत के लिए किया है किन्तु यदि आवश्यकता पड़ी तो इन शब्दों के देशी शब्दार्थ का प्रयोग करने में कोई गुरेज नहीं होगा।

डॉ0 आशुतोष मिश्र
निदेशक
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ फार्मेसी
 बभनान-गोंण्डा (उ0प्र0)।

Saturday, 26 March 2011

एक ही मकसद टोपी-टोपी

एक ही मकसद:- टोपी-टोपी हाँ तो मैं यह कह रहा था, आज कल बहुत से कलमकार ऐसे हैं जिनका मकसद एक ही है। तो प्रष्न यह उठता है कि मकसद है क्या?  अरे होगा क्या?  सिवाय इसके कि जिसके भी सर पे टोपी दिखे उछाल दो।  अब देखो न राम प्यारे जी किस्मत से गरीब हैं।  किस्मत इसलिए क्योंकि उनका मानना है कि अमीर को ज्यादा खाने-पीने को है तो उसे डायविटीज है, गाड़ियों में घूमता है तो जोड़ों में दर्द है, शरीर इतना स्थूल कि शरीर को हिलाना पड़ता है, पर निगोड़ा हिलता ही नहीं आसानी से और दूसरी तरफ राम प्यारे जी की कुर्सी देखिये हालांकि शरीर हड्डियों का ढाँचा ही है पर हड्डियों में बहुत जान है, खाने को दो रोटी मिलती है वो भी मुष्किल से तो डायविटीज की हिम्मत कहाँ जो उनके शरीर रूपी पिंजरे में घुस सके और तो और उनके दस-बारह बच्चे हैं, कइयों को साइकिल में लादकर स्कूल ले जाने से लेकर, दोपहर का खाना पहुंँचाने से भी पैरों की, कसम से वो कसरत होती है कि अच्छा खासा पहलवान उन्हें गुरू मान बैठे।  हालांकि साइकिल बेंचकर, किसी से कुछ उधारी लेकर, वो लूना खरीद लाये हैं, अब क्या करते । बीबी को बड़ी इच्छा थी तो ले ली......पर कार का तो नाम भी मत लेना।  जानते हो कार कितना पेट्रोल डकारती है। कार का जिकर उनके भूलकर भी मत करना वरना शामत आ जायेगी, जिकर करने वाले की आखिर देष की अर्थव्यवस्था का ध्यान भी तो रखना है राम प्यारे जी को।
 अब देखिये न मुझे कुछ खास लिखना तो आता नहीं है, पर क्या करूँ, टोपी पहननी है तो किसी न किसी के सर से उछालनी तो पड़ेगी ही।  हुआ यूँ कि अभी दो दिन पहले एक अखबारू देखा..........चौकिए मत तो क्या है न अभी मैं बच्चा हूँ उमर में कच्चा हूँ, तो ऐसी बातें तो हो ही जाती है।  बात यह है कि एक बिल्कुल अखबार जैसा कुछ देखा, जो बिल्कुल अखबार के बच्चे की तरह लग रहा था, तो प्यार उमड़ पड़ा।  क्यों न उमड़े आखिर।  बच्चे किसी के भी हों प्यारे लगते हैं, हाँ तो वही जो अखबार सा लग रहा था उसे ही अखबारू कह रहा हूँ, जैसे राजू, पारू, शेरू ....वगैरह............वगैरह।
 हाँ तो बात टोपी उछालने की थी.....तो ऐसा है, अभी उसी अखबारू में रामप्यारे जी का एक लेख छपा, लेख क्या टोपी-टोपी का खेल सा लगा। जिसमें उन्होंने बड़ी सफाई से टोपी पहनने के लिए अपने शहर की तमाम काव्य संस्थाओं को ही चुन लिया, बरस पड़े कवियों पर, कवि तुकबंदी करते हैं, एक दूसरे की वाहवाही करते हैं, नेताओं की टोपी उछालते हैं, कवि का एक झुनझुुना है आदि आदि।
राम प्यारे जी को लगता है कि कवियों को श्रोता नहीं मिलते, कवियों को कोई सुनता नहीं, इसलिए कवि मिल बैठ के अपने दुःख सुख बाँट लेते हैं, कवियों को काव्य रूपी दिये में अब तेल भी नहीं, कवि को कवि की बीबी ही नहीं सुनती, बच्चे दूर भागते हैं।  कवियों ने इतना लिख लिया कि उसके वजन से उनकी कमर दुहरी हो गयी......तो भी ठीक था, पर आप तो ऐसे बरस पड़े, गरज पड़े जैसे कि पड़ोसी के घर कार देखकर, दूसरा पड़ोसी अपनी मोटर साइकिल पटकने लगे।  अरे! राम प्यारे जीम ैं तो ठहरा अस्तित्वहीन प्राणी, पर आप तो अस्तित्व वाले महासमुद्र थे।  पर समुद्र तो गंभीरता के प्रतीक माने जाते हैं तो फिर ये बर्षाती नाले जैसे बाते.....माफ कीजियेगा वैसे एक बात बोलूँ राम प्यारे जी बुरा मत मानियेगा......वो कवि ही हैं जो इन तूफानों में भी साहित्य की लॉ जलाये हुये हैं।  दिल में साहित्य को जिंदा रखने का संकल्प संजोए हैंकृवैसे भी आपको नहीं मालूम ...पर मैं जब पैदा हुआ था मुझे घिसटना भी नहीं आता था....चलना और दौड़ना तो दूर पर यदि आपको बुरा लग ही गया था तो कवियों की पाठषाला में आ जाते, बिना किसी पूर्वाग्रह के कवि शायद बड़े ही सहृदय होते हैं, माफी माँग लेते।
 अब राम प्यारे जी से क्या कहें, राम प्यारे जी कहते हैं कवि, शायर नेताओं की उछालते हैं मतलब टोपी, इसलिए राम प्यारे जी ने उनकी.......अब आप कहेंगे मैं राम प्यारे जी की......तौबा-तौबा राम प्यारे जी ठहरे हमारे अग्रज। अब ये बात दूसरी है कि उन्हें न तो कविता लिखनी आती है न समझनी तो बेचारे उनका क्या कसूर।  अब वो ये समझें कि वो कवियों को नंगा करने का हुनर रखते हैं तो.....नहीं......भइया अंगेजों के लिए.....तुम क्या बोलेंगे, हमें तो खुद लिखना नहीं आता।  वैसे भी जब ईष्वर बुद्धि बाँट रहा था....हम थैला लेने चले गये थे और जब लौटे तो कन्ट्रोल की शम्मा की तरह बुद्धि खत्म हो गयी थी।  अब राम प्यारे जी को कितनी मिली थी.....हम कुछ नहीं बोलेंगे।  हम बोलेंगे तो बोलोगे कि बोलता है।  सच बोलें हम सोचते हैं कि टोपी हमारे सिर आ जाये पर क्या राम प्यारे जी हमें छोड़ देंगे ऐसे बड़ी मुष्किल से उन्होंने उतारी ....अभी पहनी भी नहीं कि कोई उतारने लगे-और चलो उतार भी ले तो क्या।....
 पत्रकारिता सम्माननीय है, लेख जन-जन के मार्ग दर्षन हैं, पर कोई इसे टोपी-टोपी का खेल बना दे भई हमें तो बुरा लगता है।  अब देखिये न श्याम प्यारे जी कविता लिखते हैं, राम प्यारे जी हास्त व्यंग्य, ये बात दूसरी कि किसी को हंसी नहीं आती वो राम प्यारे जी कहते हैं कविता ही घटिया है श्याम प्यारे जी घटिया है।  श्याम प्यारे जी लेख की उछालते हैं तो साथ में राम प्यारे जी की भी.......।  अब देखिए ना कवयित्री जी ने काव्य संग्रह छपवा भी लिया, अपने ख्याति के लिए अपने नाजुक हाथों से दस बीस पचास को उसकी प्रतियाँ दे भी दीं तो ये भी राम प्यारे जी को खल गयी। खल भी ऐसी गई कि कवयित्री को रूप रंग पे ही शुरू हो गये, बेहतर होता खुदा को ही षिकायती खत भेज देते, पर आप करते भी क्या, पुरूष अपनी शारीरिक सौष्ठव, अपने झूठी आन, शान के चोले में ढँका, औरत के अस्तित्व को स्वीकार ही कहॉ सका और तब जब नौहिकता में उससे मात खा जाये जहाँ सारे फैसले आज तक पुरूष ने लिये हो ।  (अब ऐसी भी नहीं कि मैं औरत के हर कदम का पक्षधर हूँ या यूं कहूँ कि औरत सिर्फ देवी ही है तो, आज के संदर्भ में औरत ने अपनी पहचान एवं खोने की राह चुनी है, पर औरत मंदोदरी भी है, सूर्पणखा भी, शबरी भी है........भी) कहीं ऐसा तो नहीं राम प्यारे जी आप हीन भावना से .............
 क्यों भइया टोपी मेरे सिर आ गयी न, कहो कैसी होगी।  अरे!  अरे! क्या कहा, मैंने गलत लिखा है, मुझे लिखना नहीं आता, अरे तुम ये क्या कह रहे, अरे क्या कर रहे हो, अरे...अरे....मेरी टोपी....टोपी....टोपी........

         रचनाकार
         डॉ0 आषुतोष मिश्र ‘आषु’

ASHUTOSH MISHRA 'ASHU'
AND COLLEGE OF PHARMACY
BABHNAN, GONDA
 MOBILE 9839167801
        
 

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