अपनी पलकों को उठाकर के गिरा देते हैं
बस घडी भर में हमें अपना बना लेते हैं
उनकी जुल्फों को हम गुल से सजा देते हैं
और वो हो के भी गुल हमको सजा देते हैं
हसरत -ए-दिल ये हमारी जवां नहीं होती
क्या करें तीर-ए-नजर छुप के चला देते है
छुप के लिखते हैं मेरा नाम रेत पर तनहा
हल्की आहट पे मेरी रेत- रेत बना देते हैं
मुफलिसों की तरह हम उम्र भर तरसते रहे
और एक वो हैं जो गुहर यूं ही लुटा देते हैं
बर्क जब- जब भी उसने खोले किताबों के हैं
सूखे गुल जो याद दिलाते, वो भुला देते हैं
उनकी आँखों के समंदर तो बड़े कातिल हैं
देखो 'आशु' ये बजूद -ए-दरिया मिटा देते हैं
डॉ आशुतोष मिश्र
आचार्य नरेन्द्र देव कॉलेज ऑफ़ फार्मेसी
बभनान, गोंडा, उत्तरप्रदेश
मोबाइल न० 9739167801
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2122 1122 1122 22 अपनी पलकों को उठाकर के गिरा देते है करके ऐसा वो मेरे होश उड़ा देते हैं बस घडी भर में हमें अपना बना लेते हैं जिनकी जुल्फों को कभी गुल से सजाया हमने खुद वो गुल हो के भी क्यूं हमको सजा देते हैं उनकी जुल्फों को हम गुल से सजा देते हैं और वो हो के भी गुल हमको सजा देते हैं दिल की हसरत वो जवां पर कभी नहीं लाते वो तो बस तीरे नजर छुप के चला देते है हसरत -ए-दिल ये हमारी जवां नहीं होती क्या करें तीर-ए-नजर छुप के चला देते है छुप के लिखते हैं मेरा नाम रेत पर तनहा हल्की आहट पे मेरी रेत- रेत बना देते हैं मुफलिसों की तरह हम उम्र भर तरसते रहे और एक वो हैं जो गुहर यूं ही लुटा देते हैं बर्क जब- जब भी उसने खोले किताबों के हैं सूखे गुल जो याद दिलाते, वो भुला देते हैं उनकी आँखों के समंदर तो बड़े कातिल हैं देखो 'आशु' ये बजूद -ए-दरिया मिटा देते हैं
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
अंडर प्रोसेस तक्तीअ अभी करना है
अपनी पलकों को उठाकर के गिरा देते हैं वो
दो घड़ी में गैरों को अपना बना देते हैं वो
उनकी जुल्फों को गुलों से हम सजाना चाहते
और इक गुल हो के खुद हमको सजा देते हैं वो
हसरते दिल को जवाँ होने से रोका लाख था
क्या करें पर तीर नजरों के चला देते हैं वो
छुप वो लिखते नाम मेरा बालू पर तन्हाई में
सुन के आहट नाम बालू में मिला देते हैं वो
मुफलिसों जैसा ही जीवन हमने काटा है सदा
और आँखों से गुहर यूं ही लुटा देते हैं वो
बर्क उसने जब भी खोले हैं किताबों के यहाँ
याद सूखे गुल दिलाते पर भुला देते हैं वो
उनकी आँखों के समंदर तो बड़े कातिल हैं
हस्ती को दरिया सी पल भर में मिटा देते है वो
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